हुक: क्या यह सिर्फ विज्ञान है, या तकनीक की चोरी?
बेंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) में हाल ही में संपन्न हुआ भारत-जापान विज्ञान मंच (India-Japan Science Forum) सुर्खियों में है। बाहर से यह दो महान राष्ट्रों के बीच तकनीकी सहयोग और नवाचार (Innovation) को बढ़ावा देने वाला एक सुंदर आयोजन लगता है। लेकिन एक खोजी पत्रकार के रूप में, हमें सतह के नीचे देखना होगा। यह सिर्फ अनुसंधान का आदान-प्रदान नहीं है; यह भू-राजनीतिक शतरंज की बिसात पर एक महत्वपूर्ण चाल है। असली सवाल यह है: इस 'नवाचार' की दौड़ में **भारत-जापान संबंध** का अंतिम लाभार्थी कौन बनेगा?
खबर यह है कि दोनों देशों के वैज्ञानिकों ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), क्वांटम प्रौद्योगिकी, और टिकाऊ ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में सहयोग पर चर्चा की। यह सब अच्छा है, लेकिन हमें यह समझना होगा कि जापान, जो दशकों से धीमी आर्थिक वृद्धि से जूझ रहा है, उसे भारत के युवा, विशाल तकनीकी कार्यबल की सख्त जरूरत है। वहीं, भारत को जापान की दशकों पुरानी, विश्वसनीय और उच्च-गुणवत्ता वाली इंजीनियरिंग विशेषज्ञता की आवश्यकता है। यह एक 'विन-विन' स्थिति कम, और एक आवश्यक 'तकनीकी विलय' अधिक प्रतीत होता है। **विज्ञान और प्रौद्योगिकी** के क्षेत्र में यह सहयोग भारत को पश्चिमी देशों पर अपनी निर्भरता कम करने का एक शानदार मौका देता है।
असली खेल: 'क्यों' मायने रखता है
इस सहयोग का सबसे अनदेखा पहलू है: **आपूर्ति श्रृंखला विविधीकरण (Supply Chain Diversification)**। चीन के प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए, अमेरिका और उसके सहयोगी देश अब 'चाइना प्लस वन' रणनीति पर काम कर रहे हैं। जापान इस रणनीति में भारत को एक प्रमुख केंद्र के रूप में देख रहा है। IISc जैसे संस्थान जापान को एक सुरक्षित, विश्वसनीय और बौद्धिक रूप से मजबूत भागीदार प्रदान करते हैं, जहां बौद्धिक संपदा (IP) की सुरक्षा पश्चिमी मानकों के करीब है। यह केवल इलेक्ट्रॉनिक्स या रोबोटिक्स तक सीमित नहीं है; यह अगली पीढ़ी के सेमीकंडक्टर निर्माण और हरित हाइड्रोजन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में नियंत्रण स्थापित करने की होड़ है। **नवाचार** की यह साझेदारी भारत को केवल एक ग्राहक नहीं, बल्कि एक सह-निर्माता (Co-creator) बनाती है।
विपरीत दृष्टिकोण यह है कि क्या भारत अपनी बौद्धिक संपदा को पर्याप्त रूप से सुरक्षित रख पाएगा? जापान की कंपनियाँ अपनी तकनीक को लेकर बहुत सतर्क रहती हैं। यह मंच सहयोग का द्वार खोलता है, लेकिन यह भी सुनिश्चित करता है कि भारत के युवा शोधकर्ता जापान की पुरानी, सिद्ध तकनीकों को सीखने में अपना कीमती समय न गंवा दें। असली चुनौती है—ज्ञान का आदान-प्रदान हो, लेकिन 'तकनीकी हस्तांतरण' (Technology Transfer) एकतरफा न हो।
अधिक जानकारी के लिए, आप जापान की आर्थिक नीतियों और भारत के साथ उनके संबंधों पर आधिकारिक डेटा देख सकते हैं। (उदाहरण: जापान के विदेश मंत्रालय की वेबसाइट)।
आगे क्या होगा? भविष्य की भविष्यवाणी
अगले पांच वर्षों में, हम देखेंगे कि भारत और जापान के बीच संयुक्त अनुसंधान प्रयोगशालाओं की संख्या तेजी से बढ़ेगी, खासकर रक्षा और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियों में। मेरा मानना है कि यह सहयोग **AI नैतिकता (AI Ethics)** और साइबर सुरक्षा के मानकों को स्थापित करने में पश्चिमी शक्तियों के प्रभुत्व को चुनौती देगा। भारत, जापान की मदद से, एशिया में तकनीकी मानकों का एक वैकल्पिक केंद्र बनने की कोशिश करेगा। यह एक धीमी, रणनीतिक प्रक्रिया होगी, जो रातोंरात परिणाम नहीं देगी, लेकिन यह चीन के तकनीकी एकाधिकार के खिलाफ एक मजबूत किला बनाएगी। यह सहयोग केवल अकादमिक नहीं है; यह 21वीं सदी की शक्ति संरचना को फिर से परिभाषित करने का एक प्रयास है।
भारत के लिए, यह एक दोधारी तलवार है: जापान से नवीनतम औद्योगिक प्रक्रियाओं को सीखें, लेकिन अपनी मौलिक अनुसंधान क्षमता को कमजोर न होने दें। यह **विज्ञान और प्रौद्योगिकी** में आत्मनिर्भरता की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है, भले ही वह किसी बाहरी मदद से हो।