शिक्षा जगत में एक बड़ा भूकंप आ चुका है, लेकिन शोर इतना है कि असली दरारें किसी को दिखाई नहीं दे रही हैं। उच्च शिक्षा (Higher Education) में 'एकल नियामक' (Single Regulator) लाने वाले विधेयक को मिली मंजूरी महज़ एक प्रशासनिक सुधार नहीं है; यह भारत की बौद्धिक स्वायत्तता और गुणवत्ता नियंत्रण की पूरी संरचना को बदलने की क्षमता रखता है। लेकिन सवाल यह है: क्या यह वाकई गुणवत्ता बढ़ाने के लिए है, या यह केंद्रीकरण की दिशा में एक सुनियोजित कदम है?
सिर्फ़ एक कानून, मगर इतिहास का बोझ
जो खबर सुर्खियों में है, वह यह है कि नियामक संस्थाओं की भीड़ को कम करने के लिए एक सिंगल बॉडी बनाई जाएगी। यह सुनने में आदर्श लगता है—नौकरशाही कम होगी, फाइलें तेज़ी से चलेंगी। लेकिन उच्च शिक्षा के संदर्भ में, यह एक खतरनाक सरलीकरण है। आज हमारे पास UGC, AICTE, NCTE जैसी विशिष्ट संस्थाएं हैं, जो अलग-अलग क्षेत्रों (विज्ञान, तकनीकी, शिक्षक शिक्षा) की सूक्ष्म ज़रूरतों को समझती हैं। एक 'सुपर-रेगुलेटर' इन सभी को एक ही छतरी के नीचे लाएगा।
असली सवाल यह है: क्या एक ही ब्यूरोक्रेट IIT की फंडिंग और दूरस्थ शिक्षा पाठ्यक्रम की मान्यता को समान दक्षता से संभाल सकता है? ऐतिहासिक रूप से, जब भी हमने विशिष्टता को सामान्यीकरण (Generalization) के साथ बदला है, गुणवत्ता का नुकसान हुआ है। यह बिल शिक्षा सुधार की आड़ में, निर्णय लेने की शक्ति को दिल्ली के कुछ चुनिंदा केंद्रों में केंद्रित करने का सबसे प्रभावी तरीका साबित हो सकता है। क्या यह सचमुच 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' है या 'ईज ऑफ कंट्रोलिंग'?
कौन जीत रहा है, कौन हार रहा है?
इस पूरे खेल में दो स्पष्ट विजेता और एक बड़ा हारने वाला है।
विजेता 1: सरकार और नौकरशाही। शक्ति का विकेंद्रीकरण समाप्त होगा। विश्वविद्यालयों को अब कई दरवाजों पर दस्तक नहीं देनी पड़ेगी, बल्कि एक ही शक्तिशाली द्वार पर हाज़िरी लगानी होगी। यह 'रेड टेप' कम नहीं करेगा, बल्कि उसे एक ही जगह पर केंद्रित कर देगा, जिससे निगरानी आसान हो जाएगी।
विजेता 2: बड़े निजी संस्थान। छोटे, क्षेत्रीय संस्थानों को नए, जटिल नियमों का पालन करने में अधिक संघर्ष करना पड़ेगा, जबकि बड़े निजी खिलाड़ी जिनके पास मजबूत कानूनी और लॉबिंग टीमें हैं, वे नए ढांचे में आसानी से अपनी जगह बना लेंगे। यह प्रतिस्पर्धा को कम करेगा।
हारने वाला: अकादमिक स्वतंत्रता और क्षेत्रीय विविधता। जब नियामक एक होगा, तो वह स्वाभाविक रूप से 'वन-साइज़-फिट्स-ऑल' दृष्टिकोण अपनाएगा। स्थानीय भाषाओं, क्षेत्रीय ज्ञान प्रणालियों और विशिष्ट स्थानीय आवश्यकताओं को दरकिनार कर दिया जाएगा। यह भारत की विविधतापूर्ण शिक्षण प्रणाली पर एकरूपता का भारी बोझ डालेगा। यह भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली के लिए एक गंभीर झटका है।
भविष्यवाणी: आगे क्या होगा?
मेरी भविष्यवाणी स्पष्ट है: पहले तीन वर्षों में, नियामक निकाय भारी प्रशासनिक संकट से जूझता रहेगा। नई प्रक्रियाओं के कारण मान्यता प्रक्रिया धीमी हो जाएगी, जिससे प्रवेश सत्र प्रभावित होंगे। इसके बाद, एक 'बैकडोर' रास्ता खुलेगा—शक्तिशाली संस्थान नए नियमों की व्याख्या अपने पक्ष में करवाने में सफल रहेंगे, जबकि छोटे संस्थान या तो बंद हो जाएंगे या जबरन अधिग्रहण का शिकार होंगे। यह बिल अंततः निजीकरण को बढ़ावा देगा, क्योंकि सरकार नियामक बोझ को संभालने के बजाय, उसे निजी हाथों में सौंपने का रास्ता आसान करेगी।
हमें यह समझना होगा कि वास्तविक शिक्षा सुधार नियमों को घटाने से नहीं, बल्कि शिक्षकों को सशक्त बनाने और अनुसंधान संस्कृति को बढ़ावा देने से आता है, न कि केवल प्रशासनिक ढांचे को बदलने से।
मुख्य बातें (TL;DR)
- एकल नियामक का उद्देश्य नौकरशाही कम करना है, लेकिन यह शक्ति के केंद्रीकरण का जोखिम पैदा करता है।
- यह कदम क्षेत्रीय और विशिष्ट उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए अधिक बोझिल हो सकता है।
- बड़े निजी संस्थान और सरकार इस बदलाव से सबसे अधिक लाभान्वित होंगे।
- सफल कार्यान्वयन के अभाव में, पहले कुछ वर्षों में मान्यता प्रक्रिया बाधित होने की संभावना है।