हुक: क्या भारत का 'डेमोग्राफिक डिविडेंड' एक धोखा है?
भारत दुनिया की सबसे युवा आबादी वाला देश है। यह 'जनसांख्यिकीय लाभांश' (Demographic Dividend) की बात हर जगह हो रही है। लेकिन मुख्य आर्थिक सलाहकार (CEA) नागेश्वरन का यह कहना कि इस लाभांश को भुनाने के लिए उच्च शिक्षा (Higher Education) में राज्य-स्तरीय सुधार आवश्यक हैं, एक खतरनाक संकेत है। यह केवल एक नीतिगत सलाह नहीं है; यह केंद्र सरकार द्वारा एक विशाल, अनसुलझी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की बौद्धिक कवायद हो सकती है। सवाल यह है: क्या हम वास्तव में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए राज्यों पर निर्भर रह सकते हैं जब उनके पास पहले से ही वित्तीय बोझ है?
मांस (The Meat): केंद्र की चुप्पी और राज्यों पर बोझ
नागेश्वरन का तर्क है कि चूंकि शिक्षा 'समवर्ती सूची' (Concurrent List) में है, इसलिए राज्यों को स्थानीय जरूरतों के अनुसार पाठ्यक्रम और नवाचार लाने चाहिए। यह सुनने में आकर्षक लगता है – स्थानीय समाधान, स्थानीय परिणाम। लेकिन ज़मीनी हकीकत कड़वी है। आज, भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली गंभीर रूप से वित्त पोषित और अव्यवस्थित है। अधिकांश प्रतिष्ठित संस्थान केंद्र सरकार के अधीन हैं, और राज्यों के पास अक्सर शिक्षकों को नियुक्त करने, बुनियादी ढांचे को उन्नत करने, या अनुसंधान एवं विकास (R&D) में निवेश करने के लिए पर्याप्त धन नहीं होता है।
यहाँ वह अनकहा सच है: जब केंद्र शिक्षा सुधारों की जिम्मेदारी राज्यों पर डालता है, तो वह प्रभावी रूप से गुणवत्ता नियंत्रण और फंडिंग की गारंटी से पीछे हट जाता है। यदि हर राज्य अपने तरीके से आगे बढ़ता है, तो हमें 28 अलग-अलग गुणवत्ता मानकों वाले स्नातक मिलेंगे। यह 'राष्ट्रीय कौशल' को कमजोर करेगा और भारत की प्रतिस्पर्धात्मकता को चोट पहुँचाएगा। यह सुधार नहीं, बल्कि विखंडन है। कीवर्ड: शिक्षा सुधार, उच्च शिक्षा, जनसांख्यिकीय लाभांश।
यह क्यों मायने रखता है: दोहरे मानकों का उदय
इस रणनीति का असली विजेता कौन है? निजी क्षेत्र, जो कम नियामक हस्तक्षेप के साथ कम गुणवत्ता वाले, लेकिन सस्ते व्यावसायिक पाठ्यक्रम बेच सकता है। हारने वाले कौन हैं? ग्रामीण और अर्ध-शहरी छात्र, जिनके लिए राज्य विश्वविद्यालय ही एकमात्र विकल्प हैं। यदि राज्य-स्तरीय सुधारों का मतलब केवल सीटों की संख्या बढ़ाना है, न कि फैकल्टी की गुणवत्ता, तो हम केवल 'रोजगार योग्य' युवाओं की संख्या बढ़ाएंगे, न कि 'रोजगार-सक्षम' युवाओं की। यह एक बड़ी आर्थिक गलती है। उच्च शिक्षा का मानकीकरण राष्ट्रीय विकास के लिए महत्वपूर्ण है, जिसे राज्य-स्तरीय मनमानी से खतरा है। अधिक जानकारी के लिए, आप शिक्षा के वित्तपोषण पर OECD की रिपोर्ट देख सकते हैं।
भविष्य का अनुमान: 'शिक्षा का क्षेत्रीयकरण' और पलायन
मेरा बोल्ड अनुमान यह है कि यदि यह राज्य-केंद्रित मॉडल अपनाया जाता है, तो अगले पांच वर्षों में, शीर्ष प्रतिभाओं का पलायन और तेज होगा। छात्र और अभिभावक गुणवत्ता की तलाश में उन राज्यों की ओर भागेंगे जो केंद्रीय मानकों (जैसे IIT/IIM) को बनाए रखते हैं, जिससे अन्य राज्यों के विश्वविद्यालय और अधिक खोखले हो जाएंगे। 'जनसांख्यिकीय लाभांश' एक 'जनसांख्यिकीय संकट' में बदल जाएगा, जहां हमारे पास लाखों डिग्रीधारी होंगे जो किसी भी वैश्विक कार्यबल के लिए उपयुक्त नहीं होंगे। शिक्षा सुधार को एक एकीकृत राष्ट्रीय दृष्टि की आवश्यकता है, न कि 28 अलग-अलग प्रयोगों की।
यह बहस शिक्षा के भविष्य को आकार देगी। क्या हम एक एकीकृत ज्ञान शक्ति बनेंगे, या विविध, असंबद्ध कौशल केंद्रों का एक संग्रह? केवल समय बताएगा, लेकिन वर्तमान दिशा चिंताजनक है।