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फिल्म फेस्टिवल: क्या यह पर्यावरण की 'देखरेख' है या सिर्फ एक महंगा दिखावा? अनकहा सच!

By Aditya Patel • December 7, 2025

फिल्म फेस्टिवल: क्या यह पर्यावरण की 'देखरेख' है या सिर्फ एक महंगा दिखावा? अनकहा सच!

मुंबई में आयोजित होने वाला 'सी चेंज: ऑल लिविंग थिंग्स एनवायर्नमेंटल फिल्म फेस्टिवल' (See Change: All Living Things Environmental Film Festival) एक बार फिर चर्चा में है। सतह पर, यह एक सराहनीय प्रयास लगता है—कैमरे के लेंस के माध्यम से हमारी टूटती हुई दुनिया को दिखाना। लेकिन एक खोजी पत्रकार के तौर पर, हमें सिर्फ चमकदार पोस्टर और अच्छी मंशाओं से संतुष्ट नहीं होना चाहिए। असली सवाल यह है: **पर्यावरण संरक्षण** की इस दौड़ में, क्या ये फेस्टिवल वास्तव में कोई **बदलाव** ला रहे हैं, या ये केवल उन अभिजात्य वर्ग (elite class) के लिए एक बौद्धिक व्यायाम बनकर रह गए हैं जो अपनी कार्बन फुटप्रिंट को अपराधबोध से धोना चाहते हैं?

हम **जलवायु परिवर्तन** की बात करते हैं, लेकिन हमने कभी यह नहीं पूछा कि इन फिल्मों को बनाने, दिखाने और उन पर चर्चा करने में कितना संसाधन खर्च होता है। यह उत्सव, जिसे 'देखरेख' (See Change) कहा जा रहा है, कहीं एक ऐसा 'ग्रीनवॉशिंग' का नया रूप तो नहीं है?

अनकहा सच: किसे फायदा हो रहा है?

जब भी कोई बड़ा पर्यावरणीय कार्यक्रम होता है, तो हम कलाकारों, निर्देशकों और दर्शकों की बात करते हैं। लेकिन उस उद्योग की बात कौन करता है जो इन आयोजनों के पीछे की मशीनरी को चलाता है? असली विजेता वे कॉर्पोरेट प्रायोजक हैं जो अपनी छवि को 'पर्यावरण-प्रेमी' दिखाना चाहते हैं। वे अपनी ब्रांडिंग के लिए फिल्म फेस्टिवल का उपयोग करते हैं, जबकि उनके मुख्य व्यवसाय मॉडल अक्सर वही प्रदूषण फैलाने वाले होते हैं जिनके खिलाफ ये फिल्में आवाज उठाती हैं। यह एक शानदार विरोधाभास है। **पर्यावरण** पर बात करने वालों के मंच पर, कॉर्पोरेट पैसा पर्यावरण को और नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों को वैधता प्रदान कर रहा है। यह एक ऐसा चक्र है जिसे तोड़ने की जरूरत है। हमें यह समझना होगा कि जागरूकता फैलाना महत्वपूर्ण है, लेकिन जागरूकता का व्यावसायीकरण (commercialization) एक खतरनाक मोड़ है।

यह फेस्टिवल हमें केवल समस्या दिखाता है, समाधान नहीं। यह उदासी बेचता है, कार्रवाई नहीं।

गहरा विश्लेषण: संस्कृति बनाम कार्रवाई

फिल्म फेस्टिवल संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, वे भावनाएं जगाते हैं। लेकिन भावनाएं बिलों का भुगतान नहीं करतीं और न ही वे पिघलते ग्लेशियरों को रोकती हैं। क्या दर्शक, जिन्होंने फिल्म देखने के बाद गहरी चिंता महसूस की, अगले दिन अपनी खपत की आदतों (consumption habits) को बदलेंगे? शायद नहीं। वे शायद सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डाल देंगे, जो कि उस क्षणिक **बदलाव** का प्रतीक होगा।

असली लड़ाई नीतियों, बुनियादी ढांचे और कठोर सरकारी विनियमन (regulation) की है। क्या किसी फिल्म फेस्टिवल ने कभी किसी बड़े औद्योगिक घर को नीतियां बदलने पर मजबूर किया है? नहीं। वे केवल चर्चा के लिए एक सुरक्षित स्थान प्रदान करते हैं, जहाँ कठोर आलोचना को कलात्मक अभिव्यक्ति के रूप में लपेटा जाता है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि सांस्कृतिक प्रदर्शन (cultural displays) आवश्यक हैं, लेकिन वे जमीनी स्तर पर होने वाले संरचनात्मक परिवर्तनों का स्थान नहीं ले सकते। अधिक जानकारी के लिए, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टें देखें [https://www.un.org/en/climatechange/science](https://www.un.org/en/climatechange/science)।

भविष्य की भविष्यवाणी: आगे क्या होगा?

मेरी भविष्यवाणी स्पष्ट है: अगले पांच वर्षों में, हम देखेंगे कि ऐसे फिल्म फेस्टिवल और भी अधिक महंगे और विशिष्ट होते जाएंगे। वे पर्यावरण सक्रियता (activism) के लिए एक 'स्टेटस सिंबल' बन जाएंगे। लेकिन जनता का एक बड़ा हिस्सा इन आयोजनों से कट जाएगा, क्योंकि वे महसूस करेंगे कि यह केवल उच्च वर्ग का प्रदर्शन है। असली सफलता तब मिलेगी जब ये फिल्म निर्माता अपनी कला को उन समुदायों तक ले जाएंगे जो सीधे तौर पर प्रदूषित हो रहे हैं—न कि केवल दिल्ली या मुंबई के वातानुकूलित सिनेमाघरों तक। यदि ये फेस्टिवल केवल मनोरंजन बने रहे, तो इनका प्रभाव शून्य रहेगा। हमें वैश्विक स्तर पर हो रहे परिवर्तनों को समझना होगा, जैसे कि यूरोपीय संघ का नया कड़ा कानून [https://www.reuters.com/](https://www.reuters.com/) (उदाहरण के लिए, एक उच्च-प्राधिकरण लिंक)।

अंततः, 'सी चेंज' को वास्तव में 'सी चेंज' बनने के लिए, उन्हें केवल दिखाने से हटकर, कार्रवाई के लिए एक पुल बनाना होगा।