भारत की टॉप-5 अर्थव्यवस्था का जश्न: क्या यह सिर्फ एक संख्या है?
भारत को दुनिया की शीर्ष पाँच अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होना एक ऐतिहासिक उपलब्धि है, इसमें कोई संदेह नहीं। यह **भारतीय अर्थव्यवस्था** की लचीलापन और पिछले पंद्रह वर्षों में किए गए संरचनात्मक सुधारों का प्रमाण है। लेकिन इस जश्न के शोर में, एक तीखा सवाल दब जाता है: **भारत की आर्थिक वृद्धि** का असली लाभार्थी कौन है? यह उपलब्धि केवल सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के आंकड़ों का खेल है, या क्या यह जमीनी हकीकत में आम आदमी तक पहुंची है? अर्थशास्त्री इस सफलता को 'आत्मनिर्भरता' और 'डिजिटल क्रांति' से जोड़ते हैं, लेकिन एक खोजी पत्रकार के तौर पर, हमें आईने के पीछे देखना होगा।
अनकही कहानी: विकास का असमान वितरण
जब हम 'टॉप-5' की बात करते हैं, तो हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि यह विकास कितना असमान रहा है। **भारतीय अर्थव्यवस्था** का इंजन तेज़ी से दौड़ा है, लेकिन इसके पहिये हर वर्ग के लिए समान रूप से नहीं घूमे हैं। असली विजेता वे कॉर्पोरेट घराने और उच्च-आय वर्ग हैं जिन्होंने पूंजीगत लाभ और निजीकरण की लहर पर सवारी की। दूसरी ओर, रोज़गार सृजन (Job Creation) की दर जीडीपी वृद्धि की तुलना में धीमी रही है। यह एक विरोधाभास है: एक तरफ रिकॉर्ड विदेशी मुद्रा भंडार, दूसरी तरफ गिरती श्रम शक्ति भागीदारी दर। यह एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो बड़ी दिखती है, पर अंदर से खोखली हो सकती है, यदि आधार मजबूत न हो।
सुधारों की बात करें तो, जीएसटी (GST) और दिवाला संहिता (Insolvency Code) जैसे कदम प्रशंसनीय हैं, जिन्होंने औपचारिक अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया। लेकिन क्या छोटे और मध्यम उद्यमों (MSMEs) पर इनका बोझ नहीं पड़ा? वे आज भी लालफीताशाही और उच्च अनुपालन लागत से जूझ रहे हैं। यही वह बारीक बिंदु है जिसे मुख्यधारा की रिपोर्टिंग अक्सर अनदेखा कर देती है। यह कहानी सिर्फ 'सुधार' की नहीं, बल्कि 'किस कीमत पर' सुधार की है।
गहराई से विश्लेषण: भू-राजनीति और जनसांख्यिकी का डबल-एज
भारत की इस छलांग के पीछे केवल आंतरिक नीतियां ही नहीं, बल्कि वैश्विक परिस्थितियां भी हैं। चीन पर पश्चिमी देशों की निर्भरता कम करने की रणनीति (China+1) ने भारत को एक आकर्षक विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित किया है। यह एक बाहरी बल है जिसने हमारे विकास को गति दी है। इसके अलावा, भारत का विशाल युवा कार्यबल (Demographic Dividend) एक शक्तिशाली शक्ति है। लेकिन अगर इस युवा शक्ति को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और कौशल नहीं मिला, तो यह 'जनसांख्यिकीय लाभांश' जल्द ही 'जनसांख्यिकीय आपदा' में बदल सकता है। यह एक टाइम बम है जिसे शांत करने के लिए तत्काल बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है।
यह सफलता केवल आंकड़ों की नहीं, बल्कि धारणा (Perception) की भी है। वैश्विक निवेशकों के लिए, भारत स्थिरता और विकास का पर्याय बन गया है। रॉयटर्स जैसी एजेंसियों की रिपोर्टें इस बढ़ती धारणा को बल देती हैं।
भविष्य की भविष्यवाणी: टॉप-3 की दौड़ और 'दो भारत' का उदय
अगले पांच वर्षों में, भारत निश्चित रूप से तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर रहेगा। यह लगभग अपरिहार्य है, बशर्ते कोई बड़ी वैश्विक मंदी न आए। मेरी बोल्ड भविष्यवाणी यह है: 2030 तक, भारत 'दो भारत' में विभाजित हो जाएगा। एक भारत, जो डिजिटल रूप से उन्नत, वैश्विक रूप से जुड़ा हुआ और तीव्र गति से बढ़ता हुआ होगा, और दूसरा भारत, जो ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में फंसा रहेगा, जहाँ बुनियादी ढांचे और आय असमानताएँ बनी रहेंगी। सरकारों को इस विभाजन को पाटने के लिए अभूतपूर्व सामाजिक सुरक्षा जाल (Social Safety Nets) बनाने होंगे, अन्यथा आर्थिक सफलता राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दे सकती है।
भारत को अपनी आर्थिक यात्रा को समावेशी बनाने के लिए, उसे सिर्फ जीडीपी पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय जीएचआई (Gross Happiness Index) पर भी ध्यान देना होगा। यह एक कठिन रास्ता है, लेकिन 'टॉप-5' की चमक फीकी पड़ जाएगी यदि हम देश के सबसे कमजोर वर्गों को पीछे छोड़ देते हैं।