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सुप्रीम कोर्ट का वो फैसला जो राष्ट्रपति को बना देगा 'असीमित'? अनदेखी सच्चाई!

By Arjun Khanna • December 11, 2025

हुक: मौन क्रांति जो संविधान को बदल सकती है

भारत की सर्वोच्च अदालत इन दिनों एक ऐसे मामले पर विचार कर रही है जो सतह पर कानूनी लग सकता है, लेकिन असल में यह **भारतीय लोकतंत्र** के भविष्य की नींव हिलाने की क्षमता रखता है। जब सुप्रीम कोर्ट **राष्ट्रपति की शक्तियों** के विस्तार पर विचार करता है, तो आम जनता इसे एक जटिल कानूनी बहस मानकर टाल देती है। लेकिन रुकिए। यह सिर्फ एक मामला नहीं है; यह **केंद्रीय शक्ति** के संतुलन को हमेशा के लिए बदलने की संभावना है। यह वह अनकही कहानी है जिसे मुख्यधारा का मीडिया नहीं बता रहा है।

मांस: कानूनी बहस नहीं, सत्ता का स्थानांतरण

हालिया सुनवाई का केंद्रबिंदु यह है कि क्या कार्यकारी शाखा (Executive Branch) के पास अप्रत्याशित आपात स्थितियों या राष्ट्रीय महत्व के मामलों में **अधिकारों का केंद्रीकरण** करने की व्यापक शक्ति होनी चाहिए। पारंपरिक रूप से, भारतीय संविधान शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) पर जोर देता है। लेकिन अगर कोर्ट राष्ट्रपति के विवेकाधीन अधिकारों (Discretionary Powers) को उस सीमा तक बढ़ाता है जिसकी कल्पना शायद संविधान निर्माताओं ने नहीं की थी, तो इसका सीधा असर संघीय ढांचे और नागरिक स्वतंत्रता पर पड़ेगा।

असली विजेता कौन है? यह सवाल पूछना ज़रूरी है। इस विस्तार से तात्कालिक रूप से कार्यकारी प्रमुख को फायदा होगा, लेकिन दीर्घकालिक विजेता वह राजनीतिक दल होगा जो इस बढ़ी हुई शक्ति का उपयोग करने में सबसे कुशल होगा। यह एक ऐसा उपकरण है जो किसी भी सरकार के हाथ में 'सुपर-पावर' बन सकता है। हमें यह समझना होगा कि यह केवल वर्तमान प्रशासन के बारे में नहीं है; यह उस मिसाल (Precedent) के बारे में है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए स्थापित की जाएगी।

गहराई से विश्लेषण: क्यों यह मायने रखता है

यह मामला केवल 'राष्ट्रपति' की शक्ति तक सीमित नहीं है; यह **भारतीय राजनीति** के चरित्र को बदलने वाला है। यदि केंद्र सरकार आपातकाल या राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लगभग असीमित शक्तियाँ प्राप्त कर लेती है, तो राज्यों का अधिकार और विपक्ष की भूमिका कमजोर हो जाएगी। यह एक ऐसा कदम है जो भारत को एक अधिक केंद्रीकृत, लगभग अर्ध-अध्यादेशवादी (Quasi-Ordinance) शासन की ओर धकेल सकता है।

विरोधियों का तर्क है कि यह न्यायपालिका की निगरानी को कमजोर करेगा। लेकिन सत्ता के समर्थक तर्क देंगे कि आज की जटिल, तेज़ी से बदलती वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकार को त्वरित निर्णय लेने की क्षमता चाहिए। यह बहस मूल रूप से **दक्षता बनाम लोकतंत्र** की है। इतिहास गवाह है कि जब भी शक्तियों का यह संतुलन बिगड़ा है, परिणाम हमेशा नागरिकों के लिए महंगा रहा है। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर नजर डालना भी महत्वपूर्ण है, जहां राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर हमेशा तनाव रहा है।

भविष्य की भविष्यवाणी: आगे क्या होगा?

मेरा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट एक मध्य मार्ग अपनाएगा, लेकिन यह मध्य मार्ग भी मौजूदा स्थिति से कहीं अधिक कार्यकारी-अनुकूल होगा। अदालतें आमतौर पर अभूतपूर्व शक्ति हस्तांतरण को पूरी तरह से खारिज नहीं करती हैं, खासकर जब 'राष्ट्रीय हित' का हवाला दिया जाता है। **भविष्यवाणी यह है:** कोर्ट कुछ सीमाएँ लगाएगा, लेकिन वे सीमाएँ इतनी धुंधली होंगी कि अगली बार जब भी कोई सरकार चाहेगी, वे उन सीमाओं को आसानी से पार कर सकेंगी। यह निर्णय अंततः **भारत में सत्ता के विकेंद्रीकरण** की प्रक्रिया को धीमा कर देगा। यह राजनीतिक स्थिरता के नाम पर लोकतांत्रिक नियंत्रण को कमजोर करने की दिशा में एक सूक्ष्म कदम होगा।

मुख्य बातें (TL;DR)