होपकोर फ़िल्में: क्या ये आपको बेवकूफ बना रही हैं? सच्चाई जो कोई नहीं बताएगा
आजकल हर तरफ़ **प्रेरणादायक फ़िल्में** (Inspirational Movies) और 'होपकोर' सिनेमा का बोलबाला है। ऐसा लगता है जैसे हर दूसरी कहानी संघर्ष के बाद मिली जीत की गाथा है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस अत्यधिक आशावाद के पीछे का असली खेल क्या है? जबकि दुनिया आर्थिक अनिश्चितता और सामाजिक उथल-पुथल से जूझ रही है, ये फिल्में हमें एक आरामदायक झूठ बेच रही हैं। यह सिर्फ मनोरंजन नहीं है; यह एक **सांस्कृतिक हथियार** है।
द अनस्पोकन ट्रुथ: आशा का व्यावसायीकरण (The Commercialization of Hope)
हम 'द परस्यूट ऑफ हैप्पीनेस' (The Pursuit of Happyness) जैसी फिल्मों को सलाम करते हैं, लेकिन हम उस एक प्रतिशत की कहानी देखना भूल जाते हैं जो वास्तव में सफल होता है। **प्रेरणादायक फ़िल्में** अक्सर यह धारणा देती हैं कि अगर आप पर्याप्त रूप से कड़ी मेहनत करते हैं (और शायद थोड़ी किस्मत साथ दे), तो आप किसी भी बाधा को पार कर सकते हैं। यह एक खतरनाक मिथक है। यह उन लोगों को चुप कराता है जो जानते हैं कि सिस्टम ही उनके खिलाफ है।
असली सवाल यह है: इन फिल्मों से किसे फायदा होता है? स्टूडियोज़ को, जो टिकट बेचते हैं, और उन कॉर्पोरेट ब्रांड्स को जो इस 'संघर्ष से सफलता' वाली छवि का उपयोग अपने विज्ञापनों में करते हैं। वे चाहते हैं कि आप सिस्टम को बदलने की मांग न करें; वे चाहते हैं कि आप अपनी हार के लिए खुद को दोषी ठहराएं और अगली 'प्रेरणादायक' कहानी की तलाश में सिनेमा हॉल में लौट आएं। यह **पलायनवाद (Escapism)** का सबसे महंगा रूप है।
गहरा विश्लेषण: क्यों 'होपकोर' एक कंट्रारियन विचार है
एक **जांच पत्रकार** के तौर पर, मेरा मानना है कि सच्ची कला वह है जो हमें असहज करे, न कि वह जो हमें सांत्वना दे। होपकोर फिल्में हमें एक ऐसी दुनिया का वादा करती हैं जो मौजूद नहीं है। वे हमें यह विश्वास दिलाती हैं कि विफलता केवल प्रयास की कमी का परिणाम है। लेकिन इतिहास गवाह है कि बड़ी सफलताएं अक्सर संरचनात्मक बदलाव, सही समय और शक्तिशाली नेटवर्कों का परिणाम होती हैं, न कि केवल अकेले व्यक्ति के अटूट संकल्प का। हमें उन कहानियों की ज़रूरत है जो दिखाएं कि जब सिस्टम क्रूर होता है तो क्या होता है, न कि केवल यह कि सिस्टम को कैसे जीता जाए।
उदाहरण के लिए, अगर हम अमेरिकी सपने की बात करें, तो रॉयटर्स जैसे विश्वसनीय स्रोत लगातार आर्थिक असमानता पर रिपोर्ट करते हैं। यह दिखाता है कि 'कड़ी मेहनत' का मंत्र एक बड़े ढांचे के सामने कितना खोखला है। **प्रेरणादायक सिनेमा** इस संरचनात्मक अन्याय को धुंधला कर देता है।
भविष्य की भविष्यवाणी: आगे क्या होगा?
अगले पांच वर्षों में, हम दो तरह की फिल्मों में वृद्धि देखेंगे। पहली, मौजूदा होपकोर फिल्मों का अति-संतृप्ति (Oversaturation), जिसके कारण दर्शक इनसे ऊब जाएंगे। दूसरी, एक नया रुझान उभरेगा जिसे मैं 'रियलिटी-शॉक सिनेमा' कहूंगा। ये फिल्में व्यक्तिगत संघर्ष के बजाय सामूहिक विफलता और प्रणालीगत प्रतिरोध पर ध्यान केंद्रित करेंगी। दर्शक अब केवल यह नहीं जानना चाहेंगे कि नायक कैसे जीता, बल्कि यह भी जानना चाहेंगे कि उसके जैसे लाखों लोग क्यों हारे। यह सिनेमा अधिक **राजनीतिक (Political)** और कम व्यक्तिगत होगा।
निष्कर्ष: अपनी आंखों पर विश्वास करें
अगली बार जब आप कोई ऐसी फ़िल्म देखें जो आपको असीम आशा देती है, तो रुकें और पूछें: **इस कहानी का विक्रेता कौन है?** क्या यह मुझे कार्रवाई के लिए प्रेरित कर रही है, या यह मुझे निष्क्रिय रूप से खुश कर रही है? सच्ची क्रांति तब शुरू होती है जब हम आरामदेह झूठ को अस्वीकार कर देते हैं।