WorldNews.Forum

तिरुवनंतपुरम का वो आर्ट शो: क्या यह सिर्फ कला है, या जमीनी हकीकत से ध्यान भटकाने की साज़िश?

By Ananya Joshi • December 10, 2025

कला की आड़ में राजनीति: एक अनदेखा सच

केरल के तिरुवनंतपुरम में आयोजित कला प्रदर्शनी, जो कथित तौर पर सामाजिक मुद्दों (Social Issues) पर केंद्रित है, सुर्खियों में है। सतह पर, यह प्रगतिशील विचारों और संवाद को बढ़ावा देने जैसा लगता है। लेकिन एक खोजी पत्रकार के रूप में, हमें पूछना होगा: क्या यह वास्तव में जमीनी हकीकत को बदलने का प्रयास है, या यह एक अत्यधिक प्रभावी 'ध्यान भटकाने वाला' उपकरण है? यह केवल कला नहीं है; यह सत्ता की गतिशीलता का एक सूक्ष्म प्रदर्शन है।

मुख्यधारा मीडिया इस आयोजन को 'संवाद का मंच' बताकर महिमामंडित कर रहा है। लेकिन असली सवाल यह है: ये प्रदर्शनियाँ किसके लिए हो रही हैं? क्या ये निचले तबके के लोगों के जीवन में बदलाव ला रही हैं, या ये केवल शहरी अभिजात वर्ग को अपनी 'जागरूकता' का प्रमाण पत्र देने का अवसर प्रदान कर रही हैं? सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करना आसान है जब आपकी दैनिक रोटी-रोजी सुरक्षित हो। असली चुनौती तब आती है जब कलाकार और आयोजक उन संरचनात्मक विफलताओं पर सवाल उठाते हैं जो इन मुद्दों को जन्म देती हैं।

गहराई से विश्लेषण: कला और पूंजी का गठजोड़

इस तरह के उच्च-प्रोफाइल प्रदर्शनियों का एक छिपा हुआ एजेंडा होता है। वे अक्सर एक सुरक्षित दायरे में रहकर असंतोष को नियंत्रित करने का काम करते हैं। एक ओर, वे सरकार या समाज पर कटाक्ष करते हैं; दूसरी ओर, वे कला बाजार के लिए एक आकर्षक वस्तु बन जाते हैं। यह एक विरोधाभास है: जिस व्यवस्था की आलोचना की जा रही है, वही व्यवस्था इन कलाकारों को मंच और धन प्रदान करती है। यह कला बाजार (Art Market) की एक क्लासिक चाल है—असली क्रांति को गैलरी की दीवारों तक सीमित कर देना।

भारत जैसे देश में, जहाँ वास्तविक गरीबी, स्वास्थ्य सेवा की कमी और शिक्षा का संकट विकराल रूप ले चुका है, एक कला प्रदर्शनी में घंटों बिताना एक विलासिता लगती है। क्या ये कलाकार उन लाखों लोगों के लिए कुछ कर रहे हैं जिनकी पीड़ा को वे अपनी कला में उतार रहे हैं? शायद नहीं। वे केवल अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता स्थापित कर रहे हैं। यह जागरूकता अभियान (Awareness Campaign) अक्सर केवल 'जागरूकता' बनकर रह जाता है, कार्रवाई में कभी परिवर्तित नहीं होता।

भविष्य की भविष्यवाणी: आगे क्या होगा?

मेरा अनुमान है कि इस तरह के प्रदर्शनियों की आवृत्ति बढ़ेगी, लेकिन उनका प्रभाव कम होता जाएगा। जैसे-जैसे वास्तविक संकट गहराएगा, जनता इन 'संवादों' से मोहभंग होना शुरू कर देगी। अगली बड़ी चीज़ होगी 'एक्शन-ओरिएंटेड आर्ट'—ऐसी कला जो सीधे सामुदायिक हस्तक्षेप या नीतिगत बदलाव के लिए दबाव डाले। यदि ये कलाकार केवल प्रदर्शनियों पर टिके रहते हैं, तो वे इतिहास में केवल उन लोगों के रूप में याद किए जाएंगे जिन्होंने संकट के समय में आकर्षक तस्वीरें बनाईं, लेकिन बदलाव के लिए कुछ नहीं किया। यह घटना दिखाती है कि भारत में सामाजिक मुद्दों पर बातचीत अक्सर सतही बनी रहती है। (स्रोत: विश्व बैंक डेटा पर आधारित गरीबी विश्लेषण)।

कला और सत्ता का यह खेल तब तक जारी रहेगा जब तक दर्शक गैलरी से बाहर निकलकर वास्तविक दुनिया में सवाल पूछना शुरू नहीं करते।