बजट का अगला दांव: कौन से सरकारी बैंक डूबेंगे और किसे मिलेगी 'सोने की चाबी'? असली खेल समझें!
हर केंद्रीय बजट से पहले, एक फुसफुसाहट हवा में तैरती है: सरकारी बैंक सुधार (PSB reforms)। लेकिन इस बार, यह फुसफुसाहट एक चीख है। वित्त मंत्री संकेत दे रहे हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (Public Sector Banks - PSBs) के विलय और पुनर्गठन का अगला चरण बस आने वाला है। लेकिन रुकिए। यह सिर्फ दक्षता बढ़ाने की कहानी नहीं है; यह भारतीय बैंकिंग परिदृश्य को हमेशा के लिए बदलने वाला एक भू-राजनीतिक दांव है। असली सवाल यह नहीं है कि कौन से बैंक विलय करेंगे, बल्कि यह है कि सत्ता किसके हाथ में जाएगी।
दिखावा बनाम हकीकत: सुधारों के पीछे का छिपा हुआ एजेंडा
सरकार लंबे समय से एनपीए (NPA) के बोझ तले दबे बैंकों को 'पतला' करना चाहती है। यह सतह पर दिखता है। लेकिन बैंकिंग सुधार का असली मकसद कुछ और है। यह बड़े पूंजीकरण और वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए चुनिंदा बैंकों को 'सुपर-बैंक' बनाना है। वे चाहते हैं कि भारतीय बैंक वैश्विक मंच पर 'टियर-1' देशों से लड़ सकें। इसके लिए, उन्हें छोटे, क्षेत्रीय बैंकों को निगलना होगा। जो बैंक विलय में बच जाएंगे—मान लीजिए, तीन या चार बड़े खिलाड़ी—वे सरकार के लिए 'वित्तीय हथियार' बन जाएंगे। वे ही वे संस्थाएँ होंगी जो भविष्य की बड़ी सरकारी परियोजनाओं को फंड करेंगी और भू-राजनीतिक आर्थिक फैसलों में सरकार का साथ देंगी।
कौन हारेगा? छोटे, क्षेत्रीय पीएसबी जिनका प्रबंधन कमजोर है और जिनकी पूंजी पर्याप्त नहीं है। वे विलय की मेज पर बलि का बकरा बनेंगे। उनका नाम इतिहास में दर्ज हो जाएगा, लेकिन उनकी पहचान मिट जाएगी। यह 'बाजार की ताकत' नहीं है; यह 'नीतिगत अनिवार्यता' है।
विश्लेषण: क्यों यह सिर्फ वित्तीय पुनर्गठन नहीं, बल्कि सत्ता का केंद्रीकरण है
जब हम भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में इसे देखते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है। सरकार छोटे बैंकों को खत्म करके जोखिम को कम करना चाहती है। एक मजबूत, केंद्रित बैंकिंग प्रणाली संकट के समय अधिक लचीली होती है, लेकिन यह नवाचार और स्थानीय पहुंच को भी मार देती है। क्या होगा जब आपके पास केवल चार विशाल बैंक होंगे? उनकी निर्णय लेने की प्रक्रिया धीमी हो जाएगी, और आम आदमी के लिए उनकी 'मानवीय पहुँच' कम हो जाएगी। यह एक क्लासिक ट्रेड-ऑफ है: दक्षता बनाम पहुंच।
ध्यान दें कि बड़े विलय के बाद, निजीकरण की तलवार भी लटक सकती है। एक बार जब बैंक बड़े और स्थिर हो जाते हैं, तो सरकार के पास उन्हें निजी हाथों में बेचने का एक मजबूत तर्क होगा, जिससे राजकोषीय घाटा कम होगा। यह सुधारों का अंतिम चरण है जिसका उल्लेख शायद ही कोई कर रहा है। यह सिर्फ बैंकों को मजबूत करने के बारे में नहीं है; यह उन्हें बेचने के लिए तैयार करने के बारे में है।
वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार द्वारा किए गए पिछले प्रयासों को आप अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की रिपोर्टों में देख सकते हैं। [https://www.imf.org/en/News/Articles/2023/10/25/pr23325-imf-executive-board-concludes-2023-article-iv-consultation-with-india] यह एक वैश्विक चलन है।
भविष्य की भविष्यवाणी: 'सुपर-बैंक' का उदय और ग्रामीण ऋण का भविष्य
अगले 18 महीनों में, हम देखेंगे कि दो या तीन मौजूदा बड़े पीएसबी एक विशाल 'मेगा-बैंक' का रूप ले लेंगे, जो देश की कुल संपत्ति का 40% से अधिक नियंत्रित करेगा। यह बैंक सरकार के बुनियादी ढांचा खर्चों का मुख्य वाहक बनेगा।
लेकिन यहाँ मेरा विरोधाभासी अनुमान है: ये विशाल बैंक ग्रामीण और छोटे उद्यमों (MSME) को ऋण देने में और भी अधिक रूढ़िवादी हो जाएंगे। वे बड़े कॉर्पोरेट जोखिमों पर ध्यान केंद्रित करेंगे। इसका मतलब है कि छोटे शहरों और गाँवों में ऋण की कमी हो सकती है, जिससे क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों (RRBs) पर दबाव बढ़ेगा। सरकार को इस संभावित अंतर को पाटने के लिए शायद वित्तीय क्षेत्र के नियमों को और सख्त करना पड़े। [https://www.reuters.com/world/india/] पर नजर रखें कि कैसे ये नए बैंक अपने पूंजी आवंटन को बदलते हैं।
निष्कर्ष: सुधारों की कीमत
बजट के ये सुधार अल्पकालिक स्थिरता ला सकते हैं, लेकिन दीर्घकालिक प्रतिस्पर्धा और स्थानीय बैंकिंग की जड़ों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। हमें केवल विलय की घोषणाओं पर ध्यान नहीं देना चाहिए, बल्कि उन अदृश्य नियमों पर ध्यान देना चाहिए जो तय करेंगे कि अंतिम विजेता कौन होगा।