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मानसिक स्वास्थ्य का सच: WHO की 'समावेशन' रणनीति के पीछे छिपा असली खेल क्या है?

By Arjun Mehta • December 7, 2025

मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) का मुद्दा अब दशकों पुरानी चुप्पी तोड़ चुका है। दुनिया भर में, विशेषकर भारत जैसे विशाल देश में, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल की मांग आसमान छू रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) अब 'अलगाव से समावेशन' (Isolation to Inclusion) की ओर बढ़ने की बात कर रहा है, जिसका अर्थ है बड़े अस्पतालों से हटकर सामुदायिक स्तर पर इलाज मुहैया कराना। लेकिन रुकिए। क्या यह वास्तव में गरीबों के लिए मुक्ति है, या यह सिर्फ बड़े स्वास्थ्य प्रणालियों पर पड़ने वाले बोझ को स्थानीय स्तर पर स्थानांतरित करने का एक चालाक तरीका है?

द अनस्पोकन ट्रुथ: संसाधनों का फैलाव या पलायन?

WHO की यह पहल ऊपरी तौर पर क्रांतिकारी लगती है। सामुदायिक देखभाल का विचार अच्छा है—स्थानीयता, कम लागत, और सामाजिक समर्थन। लेकिन ज़मीनी हकीकत कठोर है। जब हम मानसिक स्वास्थ्य को बड़े संस्थानों से निकालकर छोटे केंद्रों पर लाते हैं, तो क्या हम वास्तव में गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सुनिश्चित कर रहे हैं? नहीं। असल में, यह 'डी-इंस्टीट्यूशनलाइज़ेशन' अक्सर 'अंडर-फंडिंग' का दूसरा नाम होता है। बड़े अस्पतालों में विशेषज्ञता होती है, जो गंभीर मामलों के लिए अनिवार्य है। सामुदायिक केंद्रों में अक्सर प्रशिक्षित पेशेवर, दवाइयाँ और आपातकालीन समर्थन की भारी कमी होती है। यह समावेशन नहीं, बल्कि विशेषज्ञता का क्षरण है।

असली विजेता कौन है? सरकारें और बीमा कंपनियाँ जो बड़े पैमाने पर निवेश से बचती हैं। वे लागत को स्थानीय एनजीओ और परिवार के कंधों पर डाल देती हैं। यह एक आर्थिक चाल है, जिसका शिकार सबसे ज़्यादा वे लोग होते हैं जिन्हें सबसे ज़्यादा सहारे की ज़रूरत है। क्या यही मानसिक स्वास्थ्य सेवा का भविष्य है?

गहन विश्लेषण: भारत के संदर्भ में इसका क्या मतलब है?

भारत में, जहाँ पहले से ही प्रति लाख आबादी पर मनोरोग विशेषज्ञों की संख्या दुनिया में सबसे कम है, सामुदायिक मॉडल एक दोधारी तलवार है। एक ओर, यह ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँच प्रदान करता है, जो सराहनीय है। दूसरी ओर, यह शहरी केंद्रों पर दबाव कम करने का बहाना बन सकता है, जहाँ पहले से ही अत्यधिक भार है। हमें यह समझना होगा कि गंभीर सिज़ोफ्रेनिया या बाइपोलर डिसऑर्डर के मरीज़ों को केवल 'समुदाय' से ठीक नहीं किया जा सकता; उन्हें निरंतर, उच्च-स्तरीय फार्माकोलॉजिकल प्रबंधन की आवश्यकता होती है। सामुदायिक मॉडल केवल हल्के अवसाद (Mild Depression) या चिंता (Anxiety) के लिए एक सहायक उपकरण होना चाहिए, न कि संपूर्ण समाधान। यह देखना बाकी है कि क्या भारत सरकार इस मॉडल को गुणवत्तापूर्ण स्टाफिंग और दवा आपूर्ति के साथ लागू कर पाती है, या यह केवल कागज़ों पर एक 'समावेशी' नीति बनकर रह जाएगी।

उदाहरण के लिए, कई विकसित देशों ने जब बड़े संस्थानों को बंद किया, तो कई मरीज़ सड़कों पर आ गए, क्योंकि सामुदायिक समर्थन ढाँचा पूरी तरह विफल रहा। हमें इतिहास से सबक लेना होगा। रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, कई यूरोपीय देशों में डी-इंस्टीट्यूशनलाइज़ेशन के बाद बेघर होने की दर बढ़ी थी।

भविष्य की भविष्यवाणी: आगे क्या होगा?

मेरी भविष्यवाणी यह है कि अगले पाँच वर्षों में, हम 'दो-स्तरीय मानसिक स्वास्थ्य प्रणाली' देखेंगे। अमीर वर्ग निजी, उच्च-विशेषज्ञता वाले अस्पतालों में इलाज कराएगा, जबकि सरकारी तंत्र सामुदायिक केंद्रों पर भारी दबाव डालेगा। यह दबाव अंततः सामुदायिक केंद्रों की विफलता का कारण बनेगा, जिससे एक नया सामाजिक संकट पैदा होगा: इलाज न मिलने के कारण बढ़ी हुई सामाजिक अस्थिरता। मानसिक स्वास्थ्य देखभाल एक मानवाधिकार है, न कि केवल एक सामुदायिक परियोजना। यदि फंडिंग नहीं बढ़ी, तो WHO का यह सपना जल्द ही एक और सरकारी विफलता की कहानी बन जाएगा।

हमें यह समझना होगा कि वास्तविक 'समावेशन' केवल स्थान बदलने से नहीं आता; यह संसाधनों के न्यायसंगत वितरण और विशेषज्ञता के रखरखाव से आता है। WHO स्वयं स्वीकार करता है कि मानसिक स्वास्थ्य पर वैश्विक खर्च अभी भी अपर्याप्त है। जब तक यह बुनियादी असमानता दूर नहीं होती, तब तक 'समावेशन' केवल एक आकर्षक नारा रहेगा।

मुख्य निष्कर्ष (TL;DR)